भ्रमण एक कहानी
उपन्यास पढ़कर पूरा करने का निस्चय धीरज ने किया था। गत तीन दिनो से उपन्यास पढ़कर पूरा न कर सकने से उसे अपने आप पर गुस्सा आ रहा था। आज रात चाहे कुछ भी हो उसे उपन्यास पढ़कर पूरा करना ही था। जब अक्षर धुंदधले हो चले तो उसे लगा कि अब नींद उसे प्रयत्न करने पर भी पुस्तक बंद करने पर मजबूर कर रही है। बस ! अब कुछ ही पृष्ठ पढ़ने बाकि थे। मगर दो - तीन पंक्तियों को पढ़ने में भी कठिनाई हो रही थी। नींद को हटाने हेतु उसने उठकर सुराही का ठंडा पानी गिलास में लिया और दो घूंठ पानी पीकर घडी की ओरे देखा। रात के दो बजने को थे। कल सुबह जल्दी उठना था। उपन्यास पूरा करने में आज भी उसे सफलता नसीब नहीं होने वाली थी। उपन्यास बंद कर उसने बत्ती बुझा दी। बिस्तर पर लेटे -लेटे वह कहानी के बारे में सोंचता रहा। नींद ने कब उसे अपने आगोश में लिया इसका पता ही न चला।
'' भैया उठिये ! '' की जोरदार आवाज कानो पर पड़ते ही उसने आँखे खोली तो चारों ओर उजाला ही उजाला था। धीरज की आँखे लाल थी। नींद पूरी नहीं हुई थी। '' क्या नींद से उठाने के लिए इतने जोर से आवाज करना जरूरी है ? '' उसने गुस्से से अपनी छोटी बहन से पूछा। '' भाई जान ! आधे घंटे से आपको उठाने का प्रयत्न कर रही हूँ। मंद मधुर सुर से , नाजुक आवाज से उठाने की चेष्टा की मगर कुछ फायदा नहीं हुआ तो यह उपाय करना पड़ा। आज रविवार नहीं है , नहीं तो मै मेरे भैया को २-३ घंटे और सोने से मना नहीं करती थी। '' माधुरी हँसते हँसते सब कुछ कहकर भैया की ओर देख रही थी। धीरज के क्रोध का उसपर कोई परिणाम नहीं हुआ था।
चाय पीते समय माँ ने धीरज से कहा - '' यह मधु मुझे बहुत तंग करती है । इस बला को जल्दी इस घर से निकल देना चाहिए। '' धीरज ने माधुरी ओर देखा सताने की अब उसकी बारी थी।
इसे घर से निकालना है तो तुझे ही कुछ करना होगा , तू जितना जल्दी प्रयत्न करेगा उतना तेरे लिए लाभदायक होगा। माधुरी के लिए कोई लड़का तेरी नजर मै है क्या ? '' माँ के इस प्रश्न का उत्तर तो धीरज के पास था मगर अपनी छोटी आमदनी के सहारे बहन का विवाह के लिए धन जुटाना निकट भविष्य में तो संभव नहीं था , इसका पता उसकी माँ को भी था। सीतापुर जैसे छोटे से गांव में वहां के हाईस्कूल में वह छोटासा मास्टर था। अपने वेतन के सहारे माँ और बहन के साथ जीवन बिता रहा था। धन का उसे लोभ नहीं था। गरीबी के वातावरण में अपनी माँ और छोटीसी बहन के साथ वह जीवन आनंद से व्यतीत तो कर रहा था परन्तु अपने जीवन में कुछ बातों का आभाव उसे जरूर खटकता था अपना जीवन अत्यंत साधारण है और इस अति सामान्य जीवन में कुछ अलग उज्वल भविष्य संभव नहीं है इस सत्यता को जानकर कभी कभी वह उदास भी हो जाता था। आज माँ के साथ बातचीत करते समय उसका मन एक बार फिर उदास हुआ।
अनायास ही अपने गत जीवन का चित्र उसके सामने आया तो इस अति साधारण जीवन का दोष उसने अपने भाग्य को ही दिया। धीरज बम्बई यूनिवर्सिटी में एक ब्राइट स्टूडेंट के नाते जाना जाता था। बी .ए.में सर्वप्रथम आने के बाद एम् .ए . में भी उससे होशियार विद्यार्थी सारे यूनिवर्सिटी में नहीं था। अंग्रेजी भाषा पर उसका प्रभुत्व उसके प्रोफेसर को भी आश्चर्य में डाल देता था।
धीरज के घर की साम्पत्तिक हालत कुछ अच्छी नहीं थी। पेंशनर पिताजी की थोड़ी सी पेंशन पर सब कुछ चल रहा था। बस अब कुछ महीनों की ही देरी थी। एम् ए होते ही अंग्रेजी भाषा के प्राध्यापक की नौकरी उसे यूनिवर्सिटी में ही मिलने वाली थी। इतने होशियार विद्यार्थी को छोड़ने के लिए यूनिवर्सिटी के सदस्य तैयार न थे। परीक्षा पास होते ही नौकरी देने का वादा उससे किया था। मगर विधाता को यह मंजूर न था। अचानक पिता की एक दिन मृत्यु होने से पढाई छोड़कर एक छोटीसी कंपनी में धीरज को नौकरी करनी पड़ी।
बाद में एक वर्ष में प्रयत्न करके उसने एम् ए की पढाई तो पूर्ण की मगर यूनिवर्सिटी में प्राध्यापक बनने से वह वंचित रह गया। बीच में पढ़ाई छुटने से वह अवसर खो दिया था। भारी प्रयत्नो के बावजूद बम्बई में या कंही बाहर भी उसे अच्छी नौकरी नहीं मिली। एम् ए तक की पढाई बेकार सी हो गयी थी। सीतापुर के एक छोटे से गांव के उस हाईस्कूल का विज्ञापन देखकर उसने अध्यापक की नौकरी के लिए आवेदन पत्र भेजा। यह नौकरी उसे मिल गई। वेतन कम था मगर नौकरी तो पक्की थी।
उपन्यास पढ़कर पूरा करने का निस्चय धीरज ने किया था। गत तीन दिनो से उपन्यास पढ़कर पूरा न कर सकने से उसे अपने आप पर गुस्सा आ रहा था। आज रात चाहे कुछ भी हो उसे उपन्यास पढ़कर पूरा करना ही था। जब अक्षर धुंदधले हो चले तो उसे लगा कि अब नींद उसे प्रयत्न करने पर भी पुस्तक बंद करने पर मजबूर कर रही है। बस ! अब कुछ ही पृष्ठ पढ़ने बाकि थे। मगर दो - तीन पंक्तियों को पढ़ने में भी कठिनाई हो रही थी। नींद को हटाने हेतु उसने उठकर सुराही का ठंडा पानी गिलास में लिया और दो घूंठ पानी पीकर घडी की ओरे देखा। रात के दो बजने को थे। कल सुबह जल्दी उठना था। उपन्यास पूरा करने में आज भी उसे सफलता नसीब नहीं होने वाली थी। उपन्यास बंद कर उसने बत्ती बुझा दी। बिस्तर पर लेटे -लेटे वह कहानी के बारे में सोंचता रहा। नींद ने कब उसे अपने आगोश में लिया इसका पता ही न चला।
'' भैया उठिये ! '' की जोरदार आवाज कानो पर पड़ते ही उसने आँखे खोली तो चारों ओर उजाला ही उजाला था। धीरज की आँखे लाल थी। नींद पूरी नहीं हुई थी। '' क्या नींद से उठाने के लिए इतने जोर से आवाज करना जरूरी है ? '' उसने गुस्से से अपनी छोटी बहन से पूछा। '' भाई जान ! आधे घंटे से आपको उठाने का प्रयत्न कर रही हूँ। मंद मधुर सुर से , नाजुक आवाज से उठाने की चेष्टा की मगर कुछ फायदा नहीं हुआ तो यह उपाय करना पड़ा। आज रविवार नहीं है , नहीं तो मै मेरे भैया को २-३ घंटे और सोने से मना नहीं करती थी। '' माधुरी हँसते हँसते सब कुछ कहकर भैया की ओर देख रही थी। धीरज के क्रोध का उसपर कोई परिणाम नहीं हुआ था।
चाय पीते समय माँ ने धीरज से कहा - '' यह मधु मुझे बहुत तंग करती है । इस बला को जल्दी इस घर से निकल देना चाहिए। '' धीरज ने माधुरी ओर देखा सताने की अब उसकी बारी थी।
इसे घर से निकालना है तो तुझे ही कुछ करना होगा , तू जितना जल्दी प्रयत्न करेगा उतना तेरे लिए लाभदायक होगा। माधुरी के लिए कोई लड़का तेरी नजर मै है क्या ? '' माँ के इस प्रश्न का उत्तर तो धीरज के पास था मगर अपनी छोटी आमदनी के सहारे बहन का विवाह के लिए धन जुटाना निकट भविष्य में तो संभव नहीं था , इसका पता उसकी माँ को भी था। सीतापुर जैसे छोटे से गांव में वहां के हाईस्कूल में वह छोटासा मास्टर था। अपने वेतन के सहारे माँ और बहन के साथ जीवन बिता रहा था। धन का उसे लोभ नहीं था। गरीबी के वातावरण में अपनी माँ और छोटीसी बहन के साथ वह जीवन आनंद से व्यतीत तो कर रहा था परन्तु अपने जीवन में कुछ बातों का आभाव उसे जरूर खटकता था अपना जीवन अत्यंत साधारण है और इस अति सामान्य जीवन में कुछ अलग उज्वल भविष्य संभव नहीं है इस सत्यता को जानकर कभी कभी वह उदास भी हो जाता था। आज माँ के साथ बातचीत करते समय उसका मन एक बार फिर उदास हुआ।
अनायास ही अपने गत जीवन का चित्र उसके सामने आया तो इस अति साधारण जीवन का दोष उसने अपने भाग्य को ही दिया। धीरज बम्बई यूनिवर्सिटी में एक ब्राइट स्टूडेंट के नाते जाना जाता था। बी .ए.में सर्वप्रथम आने के बाद एम् .ए . में भी उससे होशियार विद्यार्थी सारे यूनिवर्सिटी में नहीं था। अंग्रेजी भाषा पर उसका प्रभुत्व उसके प्रोफेसर को भी आश्चर्य में डाल देता था।
धीरज के घर की साम्पत्तिक हालत कुछ अच्छी नहीं थी। पेंशनर पिताजी की थोड़ी सी पेंशन पर सब कुछ चल रहा था। बस अब कुछ महीनों की ही देरी थी। एम् ए होते ही अंग्रेजी भाषा के प्राध्यापक की नौकरी उसे यूनिवर्सिटी में ही मिलने वाली थी। इतने होशियार विद्यार्थी को छोड़ने के लिए यूनिवर्सिटी के सदस्य तैयार न थे। परीक्षा पास होते ही नौकरी देने का वादा उससे किया था। मगर विधाता को यह मंजूर न था। अचानक पिता की एक दिन मृत्यु होने से पढाई छोड़कर एक छोटीसी कंपनी में धीरज को नौकरी करनी पड़ी।
बाद में एक वर्ष में प्रयत्न करके उसने एम् ए की पढाई तो पूर्ण की मगर यूनिवर्सिटी में प्राध्यापक बनने से वह वंचित रह गया। बीच में पढ़ाई छुटने से वह अवसर खो दिया था। भारी प्रयत्नो के बावजूद बम्बई में या कंही बाहर भी उसे अच्छी नौकरी नहीं मिली। एम् ए तक की पढाई बेकार सी हो गयी थी। सीतापुर के एक छोटे से गांव के उस हाईस्कूल का विज्ञापन देखकर उसने अध्यापक की नौकरी के लिए आवेदन पत्र भेजा। यह नौकरी उसे मिल गई। वेतन कम था मगर नौकरी तो पक्की थी।
धीरज को एक समाधान यह था की अध्यापन के द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में रहने का अवसर उसे मिला था। यूनिवर्सिटी में न सही स्कूल में वह विद्यार्थिओं को अंग्रेजी पढ़ा सकता था। उसके पढ़ाने के ढंग पर विद्यर्थी खुश थे। उसके प्रिंसिपल और सह अद्यापक भी उसके शांत और सोजन्यशील व्यवहार से उससे प्रसन्न थे। बम्बई जैसे बड़े शहर को छोड़ इस छोटे से गांव के शांत वातावरण में सीमित वेतन में गुजारा करना ज्यादा लाभदायक था। [क्रमशः ]
[ अगली कहानी भाग - २ में ]
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