गणेश शंकर विद्यार्थी |
गणेश शंकर विद्यार्थी हमारे देश के एक तेजोमय रत्नो में से एक थे। हिन्दू - मुस्लिम एकता की स्थापना में उनका बलिदान हुआ है और देश के सामने एक नया आदर्श रख दिया है। विद्यार्थीजी की स्मृति लाखों हिन्दू और मुसलमानो को ठीक मार्ग पर रखने के लिए अँधेरे में प्रकाश दिखलाती रहेगी उनके आत्म त्याग और बलिदान की न केवल हिंदुस्तान के ही नहीं बल्कि बर्मा , सिंगापूर , दक्षिण अफ्रीका , फिजी , मॉरीशस आदि देशों के लोगों ने भी मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी।
गणेशशंकर विद्यार्थीजी का जन्म अपनी ननिहाल में प्रयाग के अतरसुया मौहल्ले में सं 1890 को कायस्थ कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री. जयनारायण एवं माता का नाम गोमती देवीजी था। ग्वालियर रियासत के मुंगावली नामक स्थान में विद्यार्थीजी के बाल्यकाल का अधिक भाग वहीँ बीता और शिक्षा का श्रीगणेश भी वहीँ हुआ। उन्होंने अपने पिताजी से ही उर्दू पढ़ना आरम्भ किया। सं. 1905 में विद्यार्थीजी ने अंग्रेजी मीडिल पास किया। इसमें उन्होंने हिंदी द्वितीय भाषा के रूप में पढ़ी थी। सं. 1907 में द्वितीय श्रेणी में एंट्रेंस परीक्षा उत्तीर्ण की। इसमें उनकी द्वितीय भाषा फ़ारसी थी। एंट्रेंस पास करने के बाद उसी वर्ष विद्यार्थीजी कायस्थ पाठशाला कॉलेज इलाहबाद में भर्ती हो गए। वहां कुछ ही महीने पढ़ पाए।
विद्यार्थीजी में अन्याय और अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने की मनोवृत्ति बचपन से ही थी। समाचार पत्र तथा मासिक पत्रिकाएं पढ़ने का शौक उनको बचपन से ही था। तभी तो ' भारत मित्र 'और ' बंगवासी ' मंगाकर स्वयं पढ़ते और अपने साथी मित्रों को सुनाया करते। सं. 1909 में उनका विवाह हरवंशपुर के मुंशी विश्वेश्वरदयाल की पौत्री से हुआ।
विद्यार्थीजी की पत्रकार कला की ओर स्वाभाविक अभिरुचि थी और यही कारण था कि जीवन क्षेत्र में प्रवेश करने के थोड़े ही दिनों बाद वे इस क्षेत्र में प्रविष्ट हो गए तथा अपने जीवन का सर्वप्रथम कार्य संपादन ही रखा। 2 नवंबर 1911 से आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदीजी के पास रहकर ' सरस्वती ' के संपादन कार्य में योगदान देने लगे। ' सरस्वती ' से ख्याति प्राप्त कर चुके विद्यार्थीजी को ' अभ्युदय ' के प्रबंधन ने अपने यहाँ खींच लिया। ' अभ्युदय ' में जाने का विद्यार्थीजी का कारण भी था। ' सरस्वती ' साहित्यिक पत्रिका थी और विद्यार्थीजी की रूचि राजनीती प्रधान थी , इसी कारण उन्होंने ' अभ्युदय ' में जाना पसंद किया।
सं. 1907 से लेकर 1913 तक विद्यार्थीजी का जीवन बड़ा ही अस्थिर और संकटपूर्ण रहा और 9 नवंबर 1913 को आख़िरकार विद्यार्थीजी ने ' प्रताप ' की नींव डाली। तब उनके साथ पं. शिवनारायण मिश्र थे। प्रारम्भ में 'प्रताप ' की आर्थिक दशा इतनी ख़राब थी कि संपादक और प्रबंधक से लेकर चपरासी के आदि काम विद्यार्थीजी और मिश्रजी स्वयं करते थे।
विद्यार्थीजी की रूचि राजनीती प्रधान होने के कारण वे इतिहास तथा राजनीती शास्त्र की पुस्तकें बहुत पढ़ते थे। उन्होंने ' हमारी आत्मोत्सर्गता ' नामक एक पुस्तक भी लिखी , जिसमे भारतवासियों के आत्मत्याग की ऐतिहासिक कथाएं थी। जब वे लखनऊ जिला और सेंट्रल जेल में थे , तब उन्होंने विक्टर ह्यूगो की ' नाइंटी थ्री ' नामक पुस्तक का ' बलिदान ' नाम से भावानुवाद किया।
सं. 1913 में ' प्रताप ' के साथ ही विद्यार्थीजी के सार्वजनिक जीवन का श्रीगणेश हुआ। प्रारम्भ में वे लोकमान्य तिलक को अपना राजनैतिक गुरु मानते और उन्ही के पद चिन्हों पर चलते थे। श्रीमती अन्नीबेसन्ट के होम रूल आंदोलन में विद्यार्थीजी ने खूब काम किया। सं. 1920 में उन्होंने ' प्रताप ' का दैनिक सस्करण तथा मासिक ' प्रभा 'का प्रकाशन भी शुरू किया। पत्र तथा पत्रिका के कारण विद्यार्थीजी की प्रतिष्ठा राजनैतिक और साहित्यिक क्षेत्र में और भी बढ़ा दी।
सं. 1929 म फरुखाबाद में युक्त प्रांतीय राजनैतिक सम्मलेन का अधिवेशन विद्यार्थीजी के सभापतित्व में हुआ था। इसके पश्चात वे प्रांतीय कॉग्रेस कमिटी के अध्यक्ष भी चुने गए। उनकी अध्यक्षता में ही सं. 1930 का संसार विख्यात सत्याग्रह का आंदोलन आरम्भ हुआ।
विद्यार्थीजी मनोविज्ञान के अच्छे ज्ञाता और मनुष्यों के चतुर पारखी थे। भले बुरे और प्रतिभाशाली व्यक्तियों को पहचानते उन्हें देर नहीं लगती थी। जहां कहीं भी कोई होनहार और प्रतिभाशाली नवयुवक दिखाई पड़ता , उसे आगे बढ़ने अपना जीवन सुधारने और उन्नतिशील बनाने के लिए प्रोत्साहित करते। उन्होंने एक सेवाश्रम की भी स्थापना कर ग्राम संगठन का काम आरम्भ कर दिया।
उन्होंने अपने राष्ट्रिय कार्यों द्वारा जिस प्रकार युक्त प्रान्त के राजनैतिक जीवन को बहुत उन्नत एवं प्रगतिशील बनाया , उसी प्रकार उन्होंने राष्ट्रभाषा हिंदी की भी बड़ी ही उत्कृष्ट सेवा की है। ' प्रताप ' के द्वारा न जाने कितने ग्रामीणों ने हिंदी की गद्य लेखन शैली में एक नई धारा प्रवाहित की। विद्यार्थीजी ने जिंदगी भर में एक ही कहानी लिखी , वह भी जेल में जिसका नाम है ' हाथी की फांसी '
विद्यार्थीजी ने इतनी अधिक साहित्य सेवा की , परन्तु वे अपने आप को साहित्य सेवी नहीं कहते थे। गोरखपुर के उन्नीसवें हिंदी साहित्य सम्मलेन का सभापतित्व भी उन्होंने सुशोभित किया था। उन्हें हिंदी की उन्नति और श्रेष्ठता में उनको बड़ा विश्वास था और इसके लिए अपनी शक्ति भर प्रयत्न करते रहते थे।
24 मार्च 1931 को कानपुर में हुए उन भीषण नरसंहारी हिंदू - मुस्लिम दंगे को कैसे भुला सकेंगे जिसने हमारे देश का एक चमकता हुआ सितारा इन दंगों ने लील लिया। ऐसे महान गणेश शंकर विद्यार्थीजी को हमारी यादों में सिमटने मजबूर किया।
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