राजा लक्ष्मणसिंह |
अंग्रेजी सरकार द्वारा ' हिन्दू - उर्दू ' भाषा विवाद को गरमाने की नीति के चलते उर्दू के विरोध में शुरू हुए शुद्ध हिंदी आंदोलन को त्रीव करने में विशिष्ट भूमिका निभानेवाले तथा भाषा नीति के विरोध में ' हिंदी की विशुद्धता ' का नारा देनेवाले और हिंदी को अरबी फ़ारसी के प्रभाव से मुक्त कराने का बीड़ा उठानेवाले राजा लक्ष्मणसिंह तत्कालीन हिंदी गद्य के उन्नायकों में अपना नाम सर्वाच्च स्थान पर दर्ज करा गए।
राजा लक्ष्मणसिंहजी का जन्म आगरा के वजीरापुर में 9 अक्टूबर 1826 को यदुवंशी क्षत्रिय परिवार में हुआ। इनका विधिवत विद्यारम्भ पांच वर्ष की आयु में आरम्भ हुआ। 13 वर्ष की अवस्था तक लक्ष्मणसिंहजी घर पर ही संस्कृत और उर्दू की शिक्षा ग्रहण करते रहे और सं. 1839 में अंग्रेजी पढ़ने के लिए आगरा कॉलेज में प्रविष्ट हुए । वहां पर उन्होंने सीनियर परीक्षा पास की। कॉलेज में अंग्रेजी के साथ उनकी दूसरी भाषा संस्कृत थी।
श्री.लक्ष्मणसिंहजी घर पर हिंदी , अरबी और फ़ारसी का अभ्यास किया करते थे। उन्होंने चौबीस वर्ष की अवस्था होते होते कई भाषाओँ में अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। कॉलेज की शिक्षा समाप्त करते ही पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर के कार्यालय में अनुवादक के पद पर नियुक्त हुए। उन्होंने सौ रूपए मासिक वेतन स्वीकार किया था। उन्होंने इस पद पर बड़ी योग्यतापूर्वक कार्य किया। इसके के पश्चात वे 1857 के विद्रोह के बाद इटावा के तहसीलदार नियुक्त हुए।
सं. 1857के विद्रोह में उन्होंने अंग्रेजों की भरपूर सहायता की और अंग्रेजों ने उन्हें पुरस्कार स्वरुप ही डिप्टी कलेक्टर का पद प्रदान किया था। अंग्रेज सरकार की सेवा में रहते हुए भी श्री. लक्ष्मणसिंह जी का साहित्यानुराग जीवित रहा। सं. 1861 में इन्होने आगरा से '' प्रजाहितेषी '' नामक पत्र निकाला इसके पश्चात सं. 1863में महाकवी कालिदास की अमर कृति '' अभिज्ञान शाकुंतलम '' का हिंदी अनुवाद किया जो '' शकुंतला नाटक '' के नाम से प्रकाशित हुआ। इसमें हिंदी की खड़ी बोली का जो नमूना श्री. लक्ष्मणसिंहजी ने प्रस्तुत किया है , उसे देखकर लोग चकित रह गए। राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द ने अपने '' गुटका ''में इस रचना को स्थान दिया।
उस समय के प्रसिद्ध हिंदी प्रेमी फेड्रिक पिन्काट उनकी भाषा तथा शैली से बहुत प्रभावित हुए और सं. 1875 में उसे इंग्लैंड में प्रकाशित कराया। इसी कृति से लक्ष्मणसिंह जी को पर्याप्त ख्याति मिली और इसे इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा में पाठ्य पुस्तक के रूप में स्वीकार किया गया। इससे उन्हें धन और सन्मान की प्राप्ति हुई। इस सन्मान से उनको प्रोत्साहन मिला और उन्होंने सं. 1877 में कालिदास के '' रघुवंश '' महाकाव्य का हिंदी अनुवाद किया और इसकी भूमिका में अपनी भाषा सम्बन्धी नीति को स्पष्ट करते हुए कहा है की -
'' हमारे मत में हिंदी और उर्दू दो बोली न्यारी -न्यारी है। हिंदी इस देश के हिन्दू बोलते है और उर्दू यहां के मुसलमानो और फ़ारसी पढ़े हुए हिन्दुओं की बोलचाल है। हिंदी में संस्कृत के पद बहुत आते है , उर्दू में अरबी फ़ारसी के। परन्तु कुछ आवश्यक नहीं है की अरबी - फ़ारसी के शब्दों के बिना हिंदी न बोली जाय और न हम उस भाषा को हिंदी कहते है जिसमे अरबी - फ़ारसी के शब्द भरे हो। ''
राजा लक्ष्मणसिंहजी के सं. 1881 में '' मेघदूत '' के पूर्वार्ध तथा सं. 1883 में उत्तरार्ध का पद्यानुवाद प्रकाशित हुआ है , जिसमे चौपाई , दोहा , सोरठा ,शिखरिणी , सवैया , छपैय , कुण्डलिया और धनाक्षरी छंदों का प्रयोग किया गया है। उन्होंने इस पुस्तक में अवधी और ब्रजभाषा दोनों के शब्दों प्रयुक्त किये है।
लक्ष्मणसिंहजी की प्रतिभा और सेवाओं के कारण सं. 1870 में उन्हें '' राजा '' की उपाधि से अलंकृत किया गया था। इसके आलावा उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय के '' फेलो '' और '' रॉयल एशियाटिक सोसाइटी '' का सदस्य बनने का गौरव भी प्राप्त हुआ था। इसके पश्चात वे सं. 1888 में आगरा में चुंगी के वाईस चेयरमैन बने और अंत तक उसी पद पर बने रहे।
इटावा के तत्कालीन कलेक्टर राजा लक्ष्मणसिंहजी के गुणों से मोहित थे। उनकी सहायता से लक्ष्मणसिंहजी ने इटावे में ह्यूम हाईस्कूल स्थापित किया उन्हें तत्कालीन सरकार ने उनकी राजभक्ति के लिए रुरका का इलाका देना चाहा परन्तु उन्होंने नम्रतापूर्वक उसे अस्वीकार कर दिया।
राजा लक्ष्मणसिंहजी ने जितना भी हिंदी में अनुवाद किया है , उसमे अपनी भाषा नीति को कायम रखा है। खड़ी बोली के रूप में संस्कृतनिष्ठ भाषा का आदर्श रखते हुए उसमे उर्दू शब्दों से परहेज रखा है। राजा लक्ष्मणसिंहजी जैसे हिंदी उन्नायक का देहांत उनकी 69 वर्ष की आयु में 14 जुलाई 1896 में हुआ।
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