पंडित. गोविन्द वल्लभ पंत |
आधुनिक युग में विशेषकर सं 1937 के पश्चात शासन का सूत्र राष्ट्रीय नेताओं के हाथ में आया, हिंदी भाषा और साहित्य के प्रसार में उत्तर प्रदेश का प्रमुख स्थान रहा है। इस प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री श्री. गोविन्द वल्लभ पंतजी होने के नाते साहित्यिक गतिविधियों में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। देवनागरी लिपि सुधार और टाइप राइटर तथा टेलीप्रिंटर के लिए देवनागरी को उपयुक्त बनाने के प्रयत्न उन्होंने सं. 1948 में ही आरम्भ किये थे।
श्री. गोविन्द वल्लभ पंतजी का जन्म अल्मोड़ा जिले के श्यामली पर्वतीय क्षेत्र स्थित गांव खूंट में एक महाराष्ट्रिय मूल के करहांङे ब्राह्मण परिवार में 10 सितम्बर 1887 को हुआ। उनके पिता का नाम श्री. मनोरथ पंत तथा उनकी माताजी का नाम गोविंदी बाई था। श्री. गोविंदजी के बचपन में ही उनके पिता की मृत्यु हो जाने के कारण उनकी परवरिश उनके नानाजी श्री. बद्रीदत्त जोशी ने की।
सं. 1905 में उन्होंने अल्मोड़ा छोड़ दिया और इलाहाबाद चले गए,यहां पर म्योर सेंट्रल कॉलेज में गणित , साहित्य और राजनीती विषयों के अच्छे विद्यार्थियों में सबसे तेज रहे। इसके आलावा वे अध्ययन के साथ साथ कांग्रेस के स्वयंसेवक का कार्य भी करते थे। उन्होंने 1907में बी. ए. तथा सं. 1909 में कानून की डिग्री सर्वाच्च अंकों के साथ हासिल की। इस कारण उन्हें कॉलेज की ओर से "लैम्सडेन अवार्ड" दिया गया।
श्री. गोविन्द वल्लभ पंतजी ने सं. 1907 में जबसे नैनीताल में वकालत आरम्भ की तभी से राजनीती में भी सक्रीय भाग लेना आरम्भ किया। वकालत के सिलसिले में वे पहले उत्तराखंड राज्य के प्रमुख पहाड़ी पर्यटन स्थल रानीखेत पहुंचे। इसके पश्चात वे काशीपुर गए , जहां पर उन्होंने ' प्रेम सभा ' नाम से एक संस्था का गठन किया। इस संस्था का उद्देश्य शिक्षा और साहित्य के प्रति जनता में जागरूकता उत्पन्न करना था। इस संस्था का कार्य इतना व्यापक था की ब्रिटिश स्कूलों काशीपुर में बंद हो गए।
श्री. पंतजी ने स्थानीय समस्याओं के निराकरण के लिए सं. 1917 में ' कमायुं परिषद् ' की स्थापना की और कमायुं के जिलों को मोंटफोर्ड शासन सुधारों के अंतर्गत शामिल करवाया। उसी वर्ष अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के और सं 1923 में यू. पी. लेजसलेटिव कौंसिल के सदस्य चुने गए।
वहीँ सात वर्ष तक यू. पी. कौंसिल की स्वराज्य पार्टी के लीडर भी रहे। सं. 1927 में प्रांतीय कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष बने। दिसंबर 1921 में गांधीजी के आवाहन पर असहयोग आंदोलन के जरिये सक्रीय राजनीती में पदार्पण कर चुके श्री. पंतजी को साइमन - कमिशन विरोधी आंदोलन में जवाहरलाल नेहरू के साथ लाठीमार पड़ी और एक प्रकार से नेहरूजी की ढाल बनकर उनकी रक्षा की , जिसका गहरा प्रभाव नेहरूजी के ह्रदय पर पड़ा।
9 अगस्त 1925 को काकोरी कांड करके उत्तर प्रदेश के कुछ देशभक्त नवयुवको ने सरकारी खजाना लूट लिया तो उनके मुकदमे की पैरवी के लिए अन्य वकीलों के साथ श्री. पंतजी ने जी -जान से सहयोग किया था। सं. 1927 में राम प्रसाद बिस्मिल तथा पंडित मदन मोहन मालवीयजी के साथ वाइसराय को पत्र भी लिखा परन्तु गांधीजी का समर्थन न मिलपाने से वे उस मिशन में कामयाब न हो सके।
श्री. गोविन्द वल्लभ पंतजी ने सभी अहिन्दी भाषी केंद्रीय कर्मचारियों के हिंदी शिक्षण के लिए बृहत योजना का निर्माण किया और उसके अनुसार सहस्त्रों व्यक्ति हिंदी सिख चुके है और सिख रहे है। उनके कार्यकाल में समय समय पर हिंदी विद्यापीठों द्वारा दिए गए प्रमाण पत्रों की स्वीकृति पर सहानभूतिपूर्वक विचार होता रहा , जिस के फलस्वरूप गुरुकुल कांगड़ी , कन्या गुरुकुल , हिंदी साहित्य सम्मलेन आदि के प्रमाण पत्रों तथा उपाधियों को केंद्रीय परीक्षाओं तथा नौकरियों में भर्ती के लिए स्वीकृत किया गया।
श्री. पंतजी हिंदी के अच्छे लेखक और प्रभावशाली वक्ता थे। उनकी भाषणों के दो संग्रह प्रकाशित हो चुके है। उन्होंने सं. 1955 से लेकर सं. 1961 तक भारत के गृहमंत्री का पद भी सुशोभित किया था और 7 मई 1961 को ही हृदयाघात से उनकी मृत्यु हो गई।
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