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पंडित सुंदरलाल  
                  हिंदी के अतिरिक्त फ़ारसी और अरबी के विद्वानों में  पंडित सुन्दरलालजी का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उनका समस्त जीवन सार्वजनिक सेवा में बीता है और राजनितिक हलचल में भाग लेने के अतिरिक्त उनकी दूसरी व्यस्तता केवल साहित्य - अध्ययन तथा लेखन रही है। 
                       पंडितजी की लेखन - शैली आरम्भ से ही मिली - जुली रही थी, जिसमे तदभव शब्दों का बाहुल्य रहा था। जबसे कांग्रेस ने सं. 1936 में हिंदुस्तानी के पक्ष में प्रस्ताव पास किया था , तब से सुन्दरलालजी की भाषा और भी बल मिला था।  इसी कारण उन्हें टकसाली हिंदुस्तानी के आचार्य के रूप में जाना जाने लगा था। 
                        असहयोग - आंदोलनों के दौरान ' भविष्य ' के सम्पादक के रूप में पंडितजी ने बहुत ख्याति पाई। उस दौर में ' संघर्ष ' के समान ' भविष्य ' भी जनता का लोकप्रिय पत्र था , जो गाँधीवादी विचारधारा का अनुसरण करता था। वैसे तो पत्रकारिता के क्षेत्र में सुन्दरलालजी का दूसरा कदम था।  इससे बहुत  पहले सं. 1908में उन्होंने प्रयाग से ही ' कर्मयोगी ' निकाला था। 
                           पंडित सुन्दरलालजी का जन्म उत्तर प्रदेश स्थित मुजफ्फरनगर के खतौली गांव के एक कायस्थ परिवार में 26 सितम्बर 1885 को हुआ था।  उनके पिता का नाम श्री. तोताराम था। पंडितजी को बचपन से ही देश को पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े देखकर उनके मन में देश को आजादी दिलाने का उत्साह भर गया था। इसी कारण पंडितजी कम आयु में ही परिवार को छोड़ कर प्रयाग चले गए। प्रयाग में ही उन्होंने अपनी कार्यस्थली बनाकर भारत की आजादी की लड़ाई में कूद पड़े।   
                 पंडित सुन्दरलालजी कायस्थ परिवार से होने के कारण एक सशस्त्र क्रांतिकारी के रूप में ग़दर पार्टी से बनारस में जुड़ गए। यहीं से श्री. लाला लाजपतराय , अरविन्द घोष , लोकमान्य बालगंगाधर तिलकजी के निकट संपर्क के कारण उनका हौसला बढ़ता गया। उन्होंने कलम के माध्यम से देशवासियों को आजाद भारत के सपने को साकार करने की हिम्मत दी।
              ' कर्मयोगी ' एक उत्तम राजनितिक पत्र था और इसे श्री. लाला लाजपतराय जैसे नेताओं का सहयोग प्राप्त था। यह पत्र पहले मासिक के रूप में और बाद में साप्ताहिक बनकर बहुत लोकप्रिय हो गया था। इसी कारण इस पत्र पर सरकार की कोप दृष्टी पड़ी और जमानत देने से इन्कार करने के कारण सं. 1910 में ही इसे बंद कर देना पड़ा था।
              पंडितजी ने अपनी पुस्तक ' हजरत मुहम्मद और इस्लाम ' में रोचक और ऐतिहासिक ढंग से सीरिया [ श्याम ] का वर्णन करते हुए लिखा है -
               '' शाम का देश , जिसमे फिलिस्तीन और येरुशलम शामिल थे , दुनिया के सबसे पुराने और सबसे हरे भरे देशों में गिना जाता है। कहा जाता है कि शाम की घाटियों से ज्यादह अच्छे मेवे दुनिया में कहीं पैदा नहीं होते। यहूदी धर्म की सब ख़ास - ख़ास बातें इसी देश में हुई। बहुत पहले जब दमशक शाम की राजधानी था , शाम एशिया की सबसे सुखी और जबरदस्त हुकूमतों में गिना जाता था। शाम के इलाके फिनीशिया में सदियों तक दुनिया भर की तिजारत की सबसे बड़ी और सबसे ज्यादह भरी - पूरी मंडियां थी। सिकंदर के बाद सदियों तक यह देश यूनानियों के साथ में रहा और यूनान की बढ़ी हुई विद्याओं , विज्ञान और दर्शन के पढ़ने - पढ़ाने की यह एक बड़ी जगह रही। सदियों इसमें सैकड़ों ही बौद्ध मठ थे और बौद्ध धर्म और बौद्ध दर्शन की घर - घर में चर्चा होती थी। शाम ने ही हजरत ईसा और ईसाई धर्म को जन्म दिया। हजरत ईसा के तीन सौ साल बाद तक यह देश ज्ञान , विज्ञान , धन - धान्य , दस्तकारीऔर तिजारत सबके लिए मशहूर था।''
                पंडितजी की रचनाओं में सबसे अधिक प्रसिद्ध पुस्तक 'भारत में अंग्रेजी राज्य ' रही है। किन्तु यह पुस्तक स्वाधीनता से पहले ही जब्त कर ली गई थी , तो भी इसके कई संस्करण प्रकाशित हुए थे और इस पुस्तक का देशव्यापी प्रचार हुआ था। उनकी शैली सरल , मनोरंजक और राष्ट्रीयता की भावना से ओत - प्रोत होती थी।
                 उनकी पुस्तकों ने हजारों - लाखों युवकों को देशभक्ति आउट त्याग का पाठ पढ़ाया था। विद्यार्थियों के वे सदा ही लोकप्रिय नेता रहें। वे अरबी , फ़ारसी और उर्दू के विद्वान होने के कारण विभिन्न धर्मो के तुलनात्मक अध्ययन के फलस्वरूप उनका दृष्टिकोण समन्वयात्मक होने के कारण इसका प्रभाव उनकी शैली पर भी पड़ा था।
             सं 1914-15 में भारत की राजधानी पर ग़दर पार्टी के सशस्त्र क्रांति के प्रयास और भारत की आजादी के लिए ग़दर पार्टी के क्रांतिकारियों के अनुपम बलिदानो का वर्णन किया गया है। उन्होंने श्री. लाला हरदयाल के साथ सम्पूर्ण उत्तर भारत का दौरा किया था।
                जब सं. 1914 में शचीन्द्रनाथ सान्याल तथा पंडितजी एक बम परिक्षण में गंभीर रूप से जख्मी हुए थे। वे लार्ड कर्जन की सभा में बम कांड करनेवालों में पंडितजी सोमश्वरानन्द बनकर शामिल हुए थे।                  पंडित सुन्दरलालजी ने 50 से अधिक पुस्तोंकों की रचना की है। स्वाधीनता के उपरान्त अपना जीवन सांप्रदायिक सदभाव को समर्पित करनेवाले पत्रकार , साहित्यकार , स्वतंत्रता सेनानी और संपादक ने अपने जीवन की 95 वर्ष की आयु में 9 मई 1981को इस दुनिया को को अलविदा कह दिया।