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श्री. जमनालाल बजाज
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खादी
हो या ग्रामोद्योग, गुजरात विद्यापीठ हो या राष्ट्र-भाषा प्रचार,
अस्पृश्यता-निवारण हो या गो-रक्षा, सभी कार्यों में जो कुछ भी जोश या
जिन्दापन लानेवाले श्री. जमनालाल बजाजजी के व्यक्तित्व का बहुत
महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
वैसे उन्होंने अन्य साहित्यिकों की तरह अपनी रचनाओं द्वारा हिन्दी की
सेवा नहीं की, फिर भी सर्वसम्मत्ति से वे हिन्दी के सेवक माने गए और उन्हें
अपने जीवन में सभी सन्मान मिले , जो इस मान्यता के सूचक है।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, उद्योगपति एवं मानवशास्त्री श्री. जमनालाल
बजाजजी का जन्म 4 नवंबर 1889 को राजस्थान के एक छोटे से गाँव काशी का वास
में एक गरीब किसान श्री. कनीराम जी के घर हुआ था। परन्तु उनकी पांच वर्ष की
आयु में उन्हें वर्धा के एक बड़े सेठ बछराजजी ने गोद लिया था।
बचपन में उन्हें विलासिता और ऐश्वर्य
का वातावरण दूषित नहीं कर पाया था, कारण उनका झुकाव अध्यात्म की ओर था।
श्री. जमनालालजी की सगाई दस वर्ष की अवस्था में जानकीजी से हुई थी। जब
श्री. बजाजजी 13 वर्ष के हुए तथा जानकीजी 9 वर्ष की हुई तो उनका विवाह
वर्धा में ही धूमधाम से संपन्न हुआ था।
श्री. जमनालालजी को महात्मा गांधीजी के बहुत करीबी तथा उनका विशेष
अनुयायी समझा जाता है। इसी कारण वे कॉग्रेस से जुड़ गए थे और सं. 1920 में
कॉंग्रेस के कोषाध्यक्ष भी बन गए थे। इस पद पर वे अपने जीवन भर रहे। हिन्दी
के प्रति उनका स्नेह इतना अधिक था कि निजी अभिव्यक्ति के लिए उसे लिपिबद्ध
रचनाओं की अपेक्षा न थी। उनके पास इस स्नेह के प्रदर्शन के लिए और मार्ग
थे।
वे
हिन्दी साहित्य सम्मलेन के सभापति भी रहे, राष्ट्रभाषा प्रचार सभा के मुख्य
संचालकों में रहे और हिन्दी साहित्य के प्रकाशनार्थ उन्होंने दो संस्थाओं
की स्थापना कि एक अजमेर में 'सस्ता साहित्य मंडल' और दूसरी बम्बई में
'गाँधी हिन्दी पुस्तक भण्डार' ।
सं.1918 में गांधीजी के सुझाव पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने दक्षिण में
हिन्दी-प्रचार करने का निर्णय किया था, तब उस कार्य के लिए साधन भी जमनालाल
जी के दान द्वारा ही जुटाये जा सके यही नहीं स्वयं सक्रिय रूप से
हिन्दी-प्रचार के लिए सन.1929 में श्री. राजाजी के साथ दक्षिण का दौरा
किया था।
श्री.
बजाज जी ने अपने जीवन में आर्थिक सहायता द्वारा कई हिन्दी पत्रों को जन्म
दिया और उनके प्रचलित पत्रो को बंद होने से बचाया। पहली श्रेणी में आनेवाले
पत्रो में 'हिन्दी नवजीवन' उलेखनीय है और दूसरी श्रेणीवालों में 'कर्मवीर'
, 'प्रताप' , 'राजस्थान केसरी' आदि शामिल है।
सं.1931 में मद्रास में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मलेन में उन्होने दिये अभिभाषण के कुछ अंश इस प्रकार है-
" ये सारी
प्रवृत्ती ऐसी है कि इनमे साहित्य का अध्ययन करने या उसके रसास्वादन के
लिए बहुत कम समय रह जाता है। देश की शक्ति बढ़ाने में साहित्य और शिक्षा का
स्थान कितना महत्त्वपूर्ण है। इसका मुझे ख़्याल है, इसलिए शिक्षा-शास्त्री
और साहित्य-सेवियो के साथ प्रेम और मित्रता का सम्बंध जोड़ने को मैं हमेशा
कोशीश करता आया हूँ। लेकिन, साहित्य न तो मेरा क्षेत्र है और न
साहित्य-सम्मान हासिल करने की मुझे कभी इच्छा या आशा ही रही है।''
श्री.
जमनालाल बजाजजी ने सदा ही खादी और स्वदेशी को ही अपनाया। उन्होने अपने
बेशकीमती वस्त्रों की होली भी जलाई थी। उन्होने अपने बच्चों को पब्लिक
स्कूल नहीं भेजा, जबकि उन्हें स्वेच्छापूर्वक वर्धा में विनोबा जी ने आरंभ
किये गए सत्याग्रह आश्रम में भेजा था। वे हमेशा ही योग्यता के बल पर पद
प्राप्त करने के पक्षधर रहे। इसका उदहारण उह्नोने अपनी पत्नी को लिखे पत्र
से मिलता है। उन्होने पत्र में लिखा था कि-" मैं हमेशा से यही सोचता आया
हूँ कि तुम और हमारे बच्चे मेरे ही कारण किसी प्रकार की प्रतिष्ठा अथवा पद
प्राप्त न करे। यदि कोई प्रतिष्ठा अथवा पद प्राप्त हो, तो वह अपनी-अपनी
योग्यता के बल पर हो। यह मेरा, तुम्हारे उनके सबके हित में है।
सन
1935 में गांधीजी ने " अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ '' की स्थापना की, इस संघ
के लिए बजाज जी ने अपना विशाल बगीचा सौंपा था। इसके आलावा खादी के उत्पादन
और उसकी ब्रिकी बढ़ाने के लिए उन्होने देश के दूर-दराज भागों का दौरा किया,
ताकि अर्ध बेरोजगारों को लाभ मिल सके। सन 1936 में 'अखिल-भारतीय हिन्दी
साहित्य सम्मलेन' नागपुर के बाद उन्होने वर्धा में देश के पश्चिम और पूर्व
के प्रांतो में हिन्दी प्रचार के लिए 'राष्ट्रभाषा प्रचार समिति' की
स्थापना कि थी।
श्री.बजाजजी जब 'हिन्दी साहित्य सम्मलेन' मद्रास के अध्यक्ष चुने गए तो
उन्होंने राष्ट्रभाषा आंदोलन को व्यवस्थित रूप देने की दिशा में अपने पद का
भरपूर उपयोग किया था। वैसे वे हिन्दू-मुस्लिम एकता तथा अछूतोद्धार के
कार्यों में जुड़ गए। उन्होंने ही सर्वप्रथम सं. 1928 में वर्धा के
'लक्ष्मीनारायण मंदिर' के द्वार अछूतों के लिए खोल दिए थे।
उनका
सबसे बड़ा काम गौ-सेवा का था। श्री.बजाजजी ने स्वयं देश के पशुधन की रक्षा
का काम चुना था और गाय को ही उसका प्रतिक माना था। उनका कहना था कि-'अगर
हमें गाय को जिन्दा रखना है तो हमें भी उसकी सेवा में अपने प्राण खोने
होंगे।' जब सं. 1918 में तत्कालीन सरकार ने उन्हें "राय बहादुर" की पदवी से
अलंकृत किया था, परन्तु सं .1920 में कलकत्ता अधिवेशन में असहयोग आंदोलन
का प्रस्ताव पारित हुआ, तो श्री. बजाजजी ने अपनी पदवी सरकार को लौटा दी थी।
श्री.
जमनालालजी के प्रयत्नों के कारण सं. 1931 में 'जयपुर राज्य प्रजा मंडल' की
स्थापना कि गई थी। इस प्रजा मंडल को सक्रीय रूप से कार्य करने पांच वर्ष
लग गए। परन्तु
30 मार्च 1938 को जयपुर राज्य ने अचानक आदेश निकाल दिया कि सरकार की आज्ञा
के बिना राज्य में किसी भी सार्वजनिक संस्था कि स्थापना नहीं की जा सकती।
सरकार
द्वारा इस तरह का आदेश देने का मुख्य कारण यह था कि मंडल का वार्षिक
अधिवेशन श्री. जमनालालजी की अध्यक्षता में 8 मई एवं 9 मई 1938 को करनेकी घोषणा की गए थी। जिसे जयपुर के एक अंग्रेज दीवान बीकैम्प सेंटजॉन को श्री. बजाजजी की लोकप्रियता हजम नहीं होती थी।
30 दिसम्बर
1938 को जयपुर राज्य में फैले हुए अकाल में राहत कार्य करने के लिए
श्री. बजाजजी सवाई माधोपुर स्टेशन पर गाडी की प्रतीक्षा कर रहे थे, तब
पुलिस ने उनको
एक आदेश दिया, जिसमे रियासत में उनके प्रवेश और गतिविधियों के कारण शान्ति
भंग होने का ख़तरा बताया गया था। इस निषेधाज्ञा ने प्रजा मंडल की आंखे
खोल दी। इस कारण उनके नेतृत्व में सत्याग्रह किया गया था।
सं. 1941 के
व्यतिगत सत्याग्रह के पश्चात जेल से रिहाई के बाद वे, महत्मा गाँधी जी की
सहमति से आनंदमयी माँ से मिलने और अपनी आध्यात्मिक महत्त्वकांशा को
सन्तुष्ट करने का
उपाय जानने की दृष्टी से देहरादून गए थे ।वहाँ से लौटने के पश्चात वर्धा
में मस्तिक की नस फट जाने के कारण 11 फेब्रुअरी 1942 में उनका अचानक
देहावसान हो गया था।
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