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राहुल सांकृत्यायन |
कथाकार, नाटककार, इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता, स्वतंत्रता सेनानी और तो और महापंडित एवं त्रिपिटाचार्य, इन सभी को एक माला में पिरोया गया हैं, तो हम इस माला को बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी के रूप में कहेंगे - राहुल सांकृत्यायन, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। राहुलजी को भारतीय वाङ्ग्मय में इन्हीं गुणों से जाना जाता है। इसके साथ, राहुलजी केवल कलम के ही धनी नहीं थे। उन्होंने क्रियात्मक रूप में भारतीय किसान आंदोलन में भी भाग लिया था और जेल यात्रा भी की थी। इसी तरह, एकमात्र बुद्धिमान विद्वान राहुल सांकृत्यायनजी चार भाइयों और एक बहन में सबसे बड़े थे। उनका जन्म 9 अप्रैल 1893 को उत्तर प्रदेश में पन्दहा ग्राम में हुआ था। उनके पिता गोवर्धन पांडे और माता का नाम कुलवंती देवी था। उन्होंने आजमगढ़ में ही मिडिल तक शिक्षा प्राप्त की तथा अरबी की पढ़ाई आगरा में तथा फ़ारसी की पढ़ाई लाहौर में की इसके आलावा उन्हें संस्कृत की शिक्षा काशी में ही प्राप्त हुई थी।
राहुलजी के सरल, अकृत्रिम व्यक्तित्व उनके व्यापक सृजनात्मक कृतित्व तथा एक प्रबुद्ध दर्शनवेत्ता को कैसे भुलाया जा सकता है ? राहुलजी भारत की राष्ट्रभाषा केवल हिंदी को ही मानते थे। और इस बारें में किसी भी अन्य समझौते को नहीं मानते थे। उन्होंने हिंदी के महत्व को उजागर करते हुए लिखा है की , '' रोज के आपसी वार्तालाप की तरह साहित्यिक दानादान के साधन के तौर पर भी भारत में हिंदी का एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है और रहेगा। ''
राहुलजी का जीवन केवल सृजनवाद के उद्देश्य से था। जब वे देश और विदेश में कहीं भी गए, तो उन्होंने वहां के लोगों की बोली सीखी और वे वहां के लोगों के साथ घुल-मिल गए और वहां की संस्कृति, समाज और साहित्य का अध्ययन किया। केदारनाथ पांडे इस महान बहुभाषी, अग्रणी विचारक, कम्युनिस्ट विचारक, यात्री, इतिहासकार, और आधुनिक समय में क्रांतिकारी साहित्यकार का वास्तविक नाम केदारनाथ पांडे था । अपनी जिज्ञासु और जबरदस्त प्रवृत्ति के कारण, घर छोड़ दिया गया था।सं. .1916 से पहले तो राहुलजी का झुकाव बौद्ध धर्म की ओर था। इस कारण पाली, प्राकृत अभंग आदि भाषाएँ सीखने की ओर अग्रसर हुए । आखिरकार सं. 1930 में राहुलजी श्रीलंका चले गए और वहां बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया , केदारनाथ पांडे, साधु वेश धारी तपस्वी 'रामोदर साधु' हमारे ' राहुल ' बन गए और संक्रांति गोत्र के कारण सांकृत्यायन कहलाए गए ।
राहुलजी की अद्भुत तर्क शक्ति और अद्वितीय ज्ञान भंडार को देखने के पश्चात काशी के पंडितों ने उन्हें महापंडित की उपाधि दी। छह भाषाओं के ज्ञाता सं. 1917 की रूसी क्रांति से बहुत प्रभावित थे। 1927-28 में उन्होंने श्रीलंका में संस्कृत शिक्षक की जिम्मेदारी भी निभाई थी । 1937 में, जब उन्हें लेनिनग्राद, रूस में एक स्कूल में संस्कृत शिक्षक के रूप में नौकरी मिली, उसी समय, भारतीय तिब्बत विभाग के सचिव लोला ऐलेना से दूसरी शादी कर ली। जिससे उन्हें पुत्र रतन इगोर रहोहोविच प्राप्त हुआ।
वे आर्यसमाज से भी प्रभावित थे। जब उन्होंने वामपंथी आंदोलन में भी भाग लिया तो उन्हें दो वर्ष तक हजारीबाग जेल में बिताने पड़े और इसी अवधि में बौध्द संस्कृत साहित्य पढ़ने का अवसर उन्हें मिला इसी कारण राहुलजी की बौद्ध धर्म में इतनी रूचि बढ़ी कि वे महाकरुणावादी बौद्ध धर्म को स्वीकार कर यायावर तथा खोजी के रूप में देश - विदेश का भ्रमण करने लगे।
तभी तो राहुलजी ने जापान , कोरिया , सोवियत संघ , ईरान तथा तिब्बत की यात्राएँ की थी। सं. 1927 - 28 तक श्रीलंका में संस्कृत के अध्यापक थे। राहुलजी अपने देश और अपने देशयासियों से कितना प्यार करते थे, इसका एक अच्छा उदहारण उनकी कृति '' नए भारत के नए नेता '' में देखने मिलता है।
राहुलजी ने सं. 1921 में मध्यप्रदेश के खंडवा में अपना पहला राजनैतिक भाषण ब्रिटिश साम्राज्य के विरोध में दिया था इसके लिए उन्हें 6 महीने जेल भुगतनी पड़ी थी। इसके आलावा उन्होंने सं. 1942 में भारत छोडो आंदोलन में सत्याग्रही की सक्रीय भूमिका निभाई थी।
उन्होंने सं. 1944 में इंदौर में मध्य भारत फासिस्ट विरोधी लेखक सम्मलेन की अध्यक्षता की थी। सं. 1947 में बम्बई में आयोजित हिंदी साहित्य सम्मलेन के अधिवेशन में श्री. राहुलजी निर्विरोध सभापति चुने गए थे ,तब उन्होंने राष्ट्र की संपर्क भाषा हिंदी को प्रतिपादित किया था। उन्होंने हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओँ की समृद्धि के लिए अनेकों ग्रंथों का प्रणयन किया था।
महापंडित राहुल संकृत्यायनजी की बहुमुखी प्रतिभा के समान ही उन्होंने अपने तीन नाम बदले केदारनाथ पांडेय , रामउदार दास साधू और भिक्खू राहुल सांकृत्यायन। उन्होंने विविध दिशाओ में जो - जो स्थाई उपलब्धियां प्राप्त की थी , उन सबके मूल में संभवतः इतिहास ही था। '' वोल्गा से गंगा '', '' सिंह सेनापति '', '' दिवोदास '', आदि साहित्यिक कृतियाँ उसी ऐतिहासिक परिवार की थी।
राहुलजी की अन्य प्रमुख रचनाओं में उनकी आत्म कथा '' मेरी जीवन यात्रा '' जो कुल 6 भागों में है। इसके अतिरिक्त [ जीने के लिए 1940 ], [ भागो नहीं , दुनिया को बदलो ,1944 ], [ राजस्थानी रनिवास, 1953 ] तथा [ निराले हिरे की खोज , 1965 ] नाटकों में नए की दुनिया , आदि उल्लेखनीय है। इसके आलावा उनके अन्य नाटक , कथा साहित्य , आत्मकथा, जीवनीयां , यात्रा वृत्तांत , निबंध , विज्ञान आदि रचनाओं की बहुत ही लम्बी फेहरिस्त है।
उनको कई सन्मान एवं उपाधियाँ प्राप्त हुई थी , जिनमे काशी पंडित सभा द्वारा '' त्रिपिटकाचार्य '', हिंदी साहित्य सम्मलेन इलाहबाद द्वारा '' साहित्य वाचस्पति ', भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा '' डी. लिट् '' की मानद उपाधि तथा श्रीलंका विद्यालंकार परिवेण द्वारा '' डी. लिट् की मानद उपाधि प्रदान की गई थी।
भारत सरकार के '' पदम् विभूषण '' से सम्मानित राहुलजी ने हिंदी साहित्य के प्रत्येक गड्ढ़े को अपनी लेखनी से पाटा है। धर्म , दर्शन , राजनीतिशास्त्र , समाज शास्त्र , भाषा शास्त्र , विज्ञान, जोतिष्य , आलोचनाशास्त्र आदि पर अपनी लेखनी के चमत्कार को दिखाते हुए 14 अप्रैल 1963 को अपनी जीवन यात्रा को अलविदा करते हुए महाप्रयाण कर दिया।
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