राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त |
कवी परिचय : -
राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्तजी को खड़ी बोली के अग्रदूतों में से एक मन जाता है। ऐसे समय में जब अधिकांश कवी अलंकृत ब्रजभाषा के पक्षधर थे, उन्होंने खड़ी बोली का समर्थन किया, इसे साहित्यिक अभिव्यक्ति का एक शक्तिशाली माध्यम बनाया और इसके भविष्य की प्रमुखता का मार्ग प्रशस्त किया।
प्रभावशाली आवाज :-
उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति "भारत भारती" [1912] , स्वतंत्रता आंदोलन के लिए एक मिसाल बन गई। कविता के प्रेरक छंद जनता में गूंज उठे, जिससे राष्ट्रीय पहचान और गौरव की भावना जागृत हुई।
साहित्यिक विरासत:-
गुप्तजी का विपुल करियर विभिन्न शैलियों तक फैला हुआ है, जिसमे "साकेत" और "यशोधरा" जैसे महाकाव्य, नाटक और अनुवाद शामिल है। उनके काम ने हिन्दी साहित्य पर अमिट छाप छोड़ते हुए देशभक्ति, नैतिकता और सामाजिक मूल्यों के विषयों की खोज की।
प्रशंसा और मान्यता :-
मैथलीशरण गुप्तजी को प्रतिष्ठित "पदम भूषण" पुरस्कार सहित कई प्रशंसाएँ मिली। उनका जन्मदिन 3 अगस्त, भारत में "कवी दिवस" के रूप में मनाया जाता है। जो उनकी स्थायी विरासत का एक प्रमाण है।
गुप्तजी का योगदान केवल उनकी काव्य प्रतिभा में नहीं, बल्कि राष्ट्रीय जागृति के लिए भाषा को एक सशक्त उपकरण के रूप में उपयोग करने के प्रति उनके समर्पण में निहित है। वह पाठकों और लेखकों की पीढ़ियों को प्रेरित करने वाले एक प्रिय व्यक्ति बने हुए है।
"सिपाही" कविता:-
" सिपाही " कविता का पोस्टर |
भूलो ऐ इतिहास, ख़रीदे हुए विश्व-ईमान!
अरि-मुंडों का दान, रक्त-तर्पण भर का अभिमान,
लड़ने तक महमान, एक पूँजी है तीर-कमान!
मुझे भूलने में सुख पाती, जग की काली स्याही,
दासो दूर, कठिन सौदा है मैं हूँ एक सिपाही!
क्या वीणा की स्वर-लहरी का सुनें मधुरतर नाद?
छिः! मेरी प्रत्यंचा भूले अपना यह उन्माद!
झंकारों का कभी सुना है भीषण वाद विवाद?
क्या तुमको है कुरु-क्षेत्र हलदी घाटी की याद!
सिर पर प्रलय, नेत्र में मस्ती, मुट्ठी में मनचाही,
लक्ष्य मात्र मेरा प्रियतम है, मैं हूँ एक सिपाही।
खींचो राम-राज्य लाने को, भू-मंडल पर त्रेता!
बनने दो आकाश छेदकर उसको राष्ट्रविजेता,
जाने दो, मेरी किस बूते कठिन परीक्षा लेता,
कोटि-कोटि कंठों 'जय-जय' है आप कौन हैं, नेता?
सेना छिन्न, प्रयत्न खिन्न कर, लाये न्योत तबाही,
कैसे पूजूँ गुमराही को मैं हूँ एक सिपाही?
बोल अरे सेनापति मेरे! मन की घुंडी खोल,
जल, थल, नभ, हिल-डुल जाने दे, तू किंचित् मत डोल!
दे हथियार या कि मत दे तू पर तू कर हुंकार,
ज्ञातों को मत, अज्ञातों को, तू इस बार पुकार!
धीरज रोग, प्रतीक्षा चिंता, सपने बने तबाही,
कह 'तैयार' ! द्वार खुलने दे, मैं हूँ एक सिपाही!
बदलें रोज बदलियाँ, मत कर चिंता इसकी लेश,
गर्जन-तर्जन रहे, देख अपना हरियाला देश!
खिलने से पहले टूटेंगी, तोड़, बता मत भेद,
वनमाली, अनुशासन की सूची से अंतर छेद!
श्रम-सीकर, प्रहार पर जीकर, बना लक्ष्य आराध्य
मैं हूँ एक सिपाही, बलि है मेरा अंतिम साध्य!
कोई नभ से आग उगलकर
किये शांति का दान, कोई माँज रहा हथकड़ियाँ
छेड़ क्रांति की तान! कोई अधिकारों के चरणों
चढ़ा रहा ईमान, ' हरी घास शूली के पहले
की '—तेरा गुण गान! आशा मिटी, कामना टूटी,
बिगुल बज पड़ी यार! मैं हूँ एक सिपाही। पथ दे,
खुला देख वह द्वार!
सारांश : -
मैथलीशरण गुप्तजी की कविता "सिपाही" हिन्दी साहित्य की एक प्रसिद्ध रचना है। यह कविता एक सिपाही के जीवन और उसकी वीरता को दर्शाती है। कविता की शुरुवात में कवी सिपाही के कर्तव्यों का वर्णन करते है। वह बताते है कि सिपाही को देश की रक्षा के लिए अपना जीवन दांव पर लगाना पड़ता है। उसे दिन-रात, गर्मी-सर्दी, वर्षा-तूफानों में भी अपनी ड्यूटी पर तैनात रहना पड़ता है।
कविता के दूसरे भाग में कवी सिपाही के त्याग और बलिदान का वर्णन करते है। वह बताते है कि सिपाही को अपने परिवार और दोस्तों से दूर रहना पड़ता है। उसे युद्ध में अपने प्राणों की आहुति भी देनी पद सकती है।
कविता के अंतिम भाग में कवी सिपाही के प्रति अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त करते है। वह कहते है कि सिपाही एक वीर योद्धा है, जो देश की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करता है।
"सिपाही" कविता एक प्रेरणादायक रचना है, जो देशभक्ति और वीरता की भावना को जागृत करती है। कविता में प्रयोग किये गए शब्द और भाषा सरल तथा सहज है। कविता की ताल लयबद्ध और प्रभावशाली है।
कविता की कुछ प्रमुख विशेषताएँ:-
देशभक्ति और वीरता की भावना।
सिपाही के जीवन और उसकी वीरता का वर्णन।
सिपाही के प्रति श्रद्धांजलि।
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